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Tuesday, 21 May 2019

अब मैं सिर्फ जागूँगा..

कुछ यूँ पंख लगाकर उड़ चले हैं सपने मेरे,
दूर कहीं है मंज़िल और मुश्किल है रास्ता..
अकेला हूँ पर हौसला है, मन में विश्वास है,
खुद को दे दिया है मैंने अब अपना ही वास्ता..!!

ना ही टूटूँगा ना ही हिम्मत हारूँगा,
ना पीछे पलटुंगा ना ही अब मैं भागूँगा..
अब तो नींद टूट चुकी है
अब मंजिल मिलने तक सिर्फ जागूँगा..
अब मंजिल मिलने तक सिर्फ जागूँगा..!!

Saturday, 9 June 2018

रात और ख्याल

ख्याल वो जो सारी रात मेरी नींदों से टकरा रहा था,
कभी मैं सपनों के करीब था कभी सिर्फ सपने सजा रहा था ।
करवटे बदलना कभी तकिये को सीने से लगाना,
अब बस ऐसा करना मेरी रातों का काम हुआ जा रहा था ।।
बस अब छोटी सी हो गयी थी वो लंबी रातें,
और.....
किसी कहानी के बेचैन मोड़ सा मैं जिये जा रहा था,
किसी कहानी के बेचैन मोड़ से मैं जिये जा रहा था।।

Sunday, 18 March 2018

निर्माण स्वयं का

रिश्ते निभाने के लिए होते हैं, यह कोई रण भूमि नही है जहां अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया जाए। आज के नव युग मे हमारी तकनीक जितनी गतिमान हो रही है हमारा आपसी व्यक्तिगत संचार तथा भावों का आवागमन छीण होता जा रहा।। हम अपने भौतिक व्यक्तित्वों का तो विकास कर रहे परंतु अपनी असल पहचान तथा छवि को घुमिल कर चुके हैं। आज हम चाहते है जब खुद को टटोलना , अपने आंतरिक मस्तिष्क तथा हृदय की गहराई को तो वहां निर्वात के सिवा और कुछ नही और जो कर रहा है बेचैन दिन प्रतिदिन हमारे जीवन को वह तो बाह्य उलझनों का वह बगीचा है जो प्रारम्भ में आकर्षक और मोहक लगता है, जिसमे स्वयं जकड़े पड़े हैं हम क्योंकि बीच मे पहुंचने पर अंधकार व्याप्त है ।।
निकलने का पथ सीधा है क्योंकि निर्माण तो स्वयं हमें ही करना है, आवश्यकता है तो बस प्रारंभ की।। बाहर तो दूर तक प्रकाश है , उतना ही जितना हमारे अंदर भी व्याप्त है बस वह भी ओझल है हमारी दृष्टि से उन जंगलों के कारण.. जिनसे निकास का द्वार हम स्वयं बनाएंगे।।

(आदी)

Monday, 18 December 2017

इश्क़ सरेआम

कुछ इस कदर मैंने खुद को उसके नाम कर दिया
हाथ को पकड़ा उसके और मोहब्बत को सरेआम कर दिया,
मेरा इश्क़ तो एकदम सच्चा था फिर भी
उसने बोला की मैने उसे बदनाम कर दिया....।।


Monday, 11 December 2017

नासमझ ही अच्छा था....

काश मुझमें ये समझ ही न होती,
मैं तो बस नासमझ ही अच्छा था..
ये दुनिया के कायदे, रीति-रिवाज
झूठे चेहरे, वादों से दूर ही अच्छा था..।।

(आदी)

Tuesday, 21 November 2017

बेपरवाह

बेहतरीन बेपरवाह जिंदगी थी
फिर परवाह न होने की परवाह हो गयी..
उन्मुक्त उड़ान तो अच्छी थी
फिर किसी क़ैद की चिन्ता हो गयी..।।

Sunday, 9 July 2017

अंधों का शहर

अंधों का शहर है या आँखों में किरकिरी है
खुली हैं ये ऑंखें या धुएं से घुली हैं......'
रोज़ गुफ्त्त्गु होती है हैवानियत से तुम्हारी,
इंसानियत क्या मुर्दों से तुली है...?

इस मंजर को भी अपना लिया हमने ऐ आदी
हवा ही जोरो की कुछ उलटी चली है......
खून का एक कतरा भी काफी था झकझोर देने को,
शांत कैसे आज जब लाल पूरी ये जमीं है ......?