बिना संघर्ष के कोई जीत नहीं,
और जहां तुम रुक गए हो अंत समझ कर..
वो तो बस एक अंधे मोड़ का अंतिम कोना है,
रास्ता अभी और है, मंजिल अभी दूर है..
हर शख्स यहाँ लड़ रहा, हर एक यहां मजबूर है..
Sunday, 24 February 2019
मंजिल दूर
Saturday, 29 September 2018
सन्नाटो की आवाज में
निकलता हूँ इन गलियों में
दूर तक कोई हमसफर नहीं दिखता
मै होता हूँ और घना सन्नाटा होता है,
मुझे खुद मेरा अस्तित्व नहीं दिखता!!
खोज रहा हूँ कुछ ऐसा मैं
जो शायद कहीं छुप गया है गुमनाम होकर
वो भी आस लगाए बैठा है
मिलूंगा तो सिर्फ चैन, सुकून और आराम खोकर!!
Thursday, 26 July 2018
रूम, फ्लैट और घर
सन 2011 था जब मैं दिल्ली पढ़ने आया,
उस समय एक कमरा लिया , 5000 के करीब था उसका किराया ।
साल दो साल नही पूरे 6 साल वहां गुजारे
पर जब भी किसी को बुलाया मेरे "रूम" पर आना सिर्फ ये कह पाया"।।
सोचा अभी तो कॉलेज का लड़कपन है ,
और मेरे दोस्त यार भी क्या कुछ कम हैं ?
हाँ फिर मैं और बड़ा हो गया....
डिग्री डिप्लोमा तो क्या मेरा मास्टर्स भी खत्म हो गया ।
फिर सोचा क्यों न अब रूम को छोड़ा जाए ,
अपने जिंदगी के रुख़ को "घर" शब्द की ओर मोड़ा जाए।
यही सोचकर मैने जगह को बदल लिया ,
एक कि बजाय अब दो कमरों का किराया दिया ।
पर अब भी मैं उस शब्द को न पा पाया,
अब भी मैने सबको "फ्लैट" पर ही बुलाया घर ना बुला पाया ।
घर तो होता है उसमें रहने वालों से, एक पूरे परिवार से,
ये नही बनता पैसों से, बातों से या सिर्फ सपनो के साकार से...।।
Sunday, 18 March 2018
निर्माण स्वयं का
रिश्ते निभाने के लिए होते हैं, यह कोई रण भूमि नही है जहां अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया जाए। आज के नव युग मे हमारी तकनीक जितनी गतिमान हो रही है हमारा आपसी व्यक्तिगत संचार तथा भावों का आवागमन छीण होता जा रहा।। हम अपने भौतिक व्यक्तित्वों का तो विकास कर रहे परंतु अपनी असल पहचान तथा छवि को घुमिल कर चुके हैं। आज हम चाहते है जब खुद को टटोलना , अपने आंतरिक मस्तिष्क तथा हृदय की गहराई को तो वहां निर्वात के सिवा और कुछ नही और जो कर रहा है बेचैन दिन प्रतिदिन हमारे जीवन को वह तो बाह्य उलझनों का वह बगीचा है जो प्रारम्भ में आकर्षक और मोहक लगता है, जिसमे स्वयं जकड़े पड़े हैं हम क्योंकि बीच मे पहुंचने पर अंधकार व्याप्त है ।।
निकलने का पथ सीधा है क्योंकि निर्माण तो स्वयं हमें ही करना है, आवश्यकता है तो बस प्रारंभ की।। बाहर तो दूर तक प्रकाश है , उतना ही जितना हमारे अंदर भी व्याप्त है बस वह भी ओझल है हमारी दृष्टि से उन जंगलों के कारण.. जिनसे निकास का द्वार हम स्वयं बनाएंगे।।
(आदी)