Sunday, 9 July 2017

अंधों का शहर

अंधों का शहर है या आँखों में किरकिरी है
खुली हैं ये ऑंखें या धुएं से घुली हैं......'
रोज़ गुफ्त्त्गु होती है हैवानियत से तुम्हारी,
इंसानियत क्या मुर्दों से तुली है...?

इस मंजर को भी अपना लिया हमने ऐ आदी
हवा ही जोरो की कुछ उलटी चली है......
खून का एक कतरा भी काफी था झकझोर देने को,
शांत कैसे आज जब लाल पूरी ये जमीं है ......?

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