Wednesday, 15 March 2017

सफ़र

तेज़ तेज़ आनन् फानन
हवा को चीरती जा रही है,
लोहे पर लोहा है
कभी धुप कभी छाँव आ रही है।।

ये रेल की रफ़्तार
तेज़ और तेज़ होती जा रही है,
सफ़र अकेले भी काट रहा है
आगे मैं बढ़ रहा हूँ की ज़िन्दगी पीछे जा रही है??

कभी गेंहूँ की लड़ियाँ हैं
कभी सरसों की बहार है,
रफ्तार तो तेज़ है मगर
फिर भी आँखें रुक् जा रही हैं।।

रफ्तार तेज़ होती जा रही है,
रफ्तार तेज़ होती जा रही है।।

पीछे छूट रहें है स्टेशन,
कुछ जाने कुछ अनजाने
तेज़ तेज़ हवा को चीरती जा रही है,
रेल भी ज़िन्दगी सी है .....
बढ़ी जा रही है, बढ़ी जा रही है।।।।

(आदित्य कुमार अवस्थी)

यात्रा के दौरान आते विचार।

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